Sunday

मीत का इन्तज़ार


रास्तों की बातें काँहा हम करते थे
वो तो रोज़ सुबह अपनी याद दिला जाता है
याद ना करे आपको तो कोई गुनाह तो नहीं है
बल्कि ऐेसा कोई कागज़ का टुकरा नहीं जिसमे आपकी याद नहीं

सूरज को डलके फिरसे उगते देखा है
सितारों को फिरसे चमकते देखा है
रातें कितनी बीत गई मीत के मिलने के याद में
पर आँगन अभी भी रुखा सुखा पड़ा है

कहते हैं खत लिखने का ज़माना चला गया
पर क्या करे आपकी याद एक मैसेज में कैद हो जाए
इतनी खास नाही मेरी कलम है और नाही मेरा फोन
इसलिए हर सुबह ऊठके एक कविता हर रोज़ आपके नाम किया
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