लड़ने झगड़ने की अगर बात होती
तो शायद हम मान भी जाते
पर बात यहां हमारे जज्बातों की थी
शायद कम ही सही पर दर्द तो हमें भी होता ही है यहां
लोगों से तो लड़ भी लेते पर अपनों का क्या करें
खफा तो बस इतना थे कि शायद ही सही बस समझ तो लेते
रोना हमें भी पसंद नहीं है
पर क्या करें उन लोगों का, जो अपने कहलाने लायक नहीं
शायद यह रिश्तो की गांठ ना होती
तो शायद ही सही पर कोई अपना तो होता
अपना होना गुनाह तो नहीं पर
अपना हक समझ के सबको कुछ भी कहना
यह तो सब का काम नहीं
बुरे तो हम भी बन सकते हैं
पर हमारी ऐसी फितरत कहां
बस आंख पोंछ के अपने जंग में लग जाते हैं
पर अपना जंग वह तो शायद अपना ही नहीं
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